Sunday, April 19, 2020

बेवफा ज़िन्दगी

हमें हर साँस में आहों की इक सज़ा सी मिली,
ज़िन्दगी जब भी मिली, बेहया, बेवफा सी मिली।

Thursday, October 11, 2018

चेतो ! धरती दरक रही है।


कभी-कभी कुछ घटनाएं आत्मचिंतन और आत्ममंथन का अवसर देती हैं। लेकिन इन अवसरों पर चिंतन या मंथन भी सामजिक, राजनीतिक, और आपराधिक दुष्प्रवृत्ति को कम नहीं कर पाता है; यह चिंता की बात है। आज मैं हालिया दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूँ। जो लोग मेरे लेखन से कुछ सनसनीखेज या धारा के साथ एक और लहर की उम्मीद करते हैं, वे निराश हो सकते हैं, लेकिन जिनकी सोच अभी भी उपजाऊ है, उनके जेहन में कुछ अन्य विचार उभर सकते हैं जो निराशा के बजाय समाज और देश के लिए समान रूप से फायदेमंद हो सकते हैं।
पहली घटना लखनऊ में एक सिपाही द्वारा एक निर्दोष नागरिक की हत्या है, और दूसरी घटना है कि तनुश्री दत्ता ने बॉलीवुड में महिलाओं के शोषण के बारे में मुखर होना। वैसे देखें तो दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं है, लेकिन अगर हम गहराई में जाते हैं, तो आने वाले समय में तेजी से बढ़ने वाले बड़े बदलाव की किरणें स्पष्ट रूप से दिखाई दे सकती हैं।
पहली घटना में तीन महिलाएं हैं जिन्होंने कई साहसिक कदम उठाए हैं।
1.
मक़तूल के साथ मौजूद महिला : जिसने सभी प्रकार के धार्मिक, सरकारी, राजनीतिक और सर्वाधिक पुलिसिया दबाव का सामना किया है। उसका यह तय करना, कि बेहया प्रश्नों और बेहूदे आक्षेपों का सामना करते हुए भी हर कीमत पर सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करेगी, निःसंदेह एक बेहद साहसिक कदम है और इस कदम में आहट है उस परिवर्तन की जहाँ स्त्री तथाकथित बदनामी के भय से बाहर निकल कर चुनौती देने की मुद्रा में है। सुखद है !
२. मक़तूल की पत्नी : जिस प्रकार से सिपाही द्वारा की गई हत्या के साथ ही पुलिस और प्रशासन बेशर्मी और नंगई का खेल खुल कर खेलने लगा उससे यही लग रहा था कि मक़तूल की पत्नी को आगे लाकर उसके मर्म को दूसरी महिला की मौजूदगी से आहत कराकर बड़ी आसानी से पत्नी को 'वो' से पीड़ित और पुलिस को पत्नी का हमदर्द के रूप में प्रस्तुत कर देंगे। परन्तु मक़तूल की पत्नी ने पुलिसिया रवैये की पीड़ा झेलते हुए भी सिस्टम की बदनीयती को लोगों के सामने रख दिया। अर्थात एक और स्त्री तथाकथित बदनामी और चरित्रहनन की पीड़ा को धता बताते हुए शासन और प्रशासन दोनों को आईना दिखा रही है। उसने तो मानों घोषणा ही कर दी है कि चरित्र, सम्बन्ध और सामजिक स्वीकार्यता पति-पत्नी आपस में तय करेंगे न कि चोर और लुटेरे गिरोह के अदना और सरगना। साहसिक है !
इससे पहले कि मैं तीसरी महिला का जिक्र करूँ, आइये एक बार हम देश और प्रदेश की प्रशानिक हकीकत पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात कर लें-
नौकरशाही और पुलिस विभाग में जिस स्तर पर आपराधिक संरक्षण की स्वीकार्यता है वह किसी से भी छिपी नहीं है परन्तु लखनऊ हत्याकांड में पुलिसकर्मियों का संगठित होकर सार्वजनिक रूप से नैसर्गिक न्याय की माँग का विरोध करना और न्यायालय के कार्य का पुरजोर अतिक्रमण करना देश व प्रदेश में संगठित गिरोहों के दुस्साहस और नागरिकों की अघोषित गुलामी को सहज ही प्रदर्शित करता है। विडम्बना यह है कि ये रोग असाध्य न होते हुए भी इसका इलाज करने की कोशिश नहीं की जाती है क्योंकि ये संकुचित और दिशाहीन राजनीति को अनवरत उर्वरता एवं भूमि दोनों उपलब्ध करवाती है।
फिलहाल जिक्र करते हैं तीसरी महिला का-
३. कातिल की पत्नी : सम्पूर्ण घटनाक्रम में कातिल की पत्नी का लोगों के सामने आना कोई बड़ी बात नहीं थी; परन्तु अभियुक्त सिपाही की पत्नी अपने पति के समर्थन में लोगों की सहानुभूति लेने नहीं अपितु पति के लिए लामबंद होकर न्याय और प्रशासन को धता बताने वाले पुलिसियों को लामबंदी और समर्थन से रोकने के लिए पत्नी का अपील करना वास्तव में आश्चर्यजनक और सुखद है। यू. पी. पुलिस का एक आपराधिक अभियोग-शुदा कर्मी के लिए लामबंद होकर मुहिम चलाना और स्वयं अभियुक्त की पत्नी का ऐसी मुहिम न चलाने का अनुरोध करना, विभाग की मंशा और कारस्तानियों दोनों को बेपर्दा करने के लिए काफी है। शंका होती है कि वो हत्यारा सिपाही असल में किसका सुहाग है। यानि यहाँ भी पति-पत्नी और वो !
किसी भी परिस्थिति में यह कहना गलत न होगा कि महिलायें अब चरित्र-हनन और लोकलाज जैसी चीज़ों को उनके वास्तविक दायरे में बाँधने को प्रतिबद्ध होती दिख रही हैं। इन तीनो महिलाओं की पीड़ा और कष्ट को नकारा नहीं जा सकता है परन्तु समग्र रूप में जो तस्वीर उभर कर सामने आने को बेताब है वह ये कि हर एक अनावश्यक, अप्रासंगिक, अनुचित, अन्ययायपूर्ण विचार, घटना, कृत्य या कार्य के लिए महिलाओं को दायरे में रखने के लिए जिन दो हथियारों (चरित्रहनन और सामजिक अस्वीकृति) का प्रयोग अचूक था महिलाओं ने उन्हें ही दायरा बताना शुरू कर दिया है।
दूसरी घटना में एक अकेली महिला ने बिगुल फूँका है। ये बिगुल भी एक संगठित गिरोह के ही विरुद्ध है जिसके पास दमन करने की ताकत के साथ-साथ कानूनी ताकत को भी खरीदने में महारथ हासिल है। तनुश्री ने जिस तरह से बॉलीवुड में हर स्तर पर हो रहे स्त्री शोषण की समस्या उठाई है वह उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जो हमें लख़नऊ हत्याकांड में नजर आती है; बस रत्ती भर फर्क है- एक जगह सामाजिक असुरक्षा और कलंक के भय को हथियार बना कर दमन किया जा रहा है तो दूसरी जगह कैरियर और व्यक्तिगत सुरक्षा के भय को हथियार बनाकर महिला का शारीरिक और मानसिक शोषण करके ये अहसास कराने की सफल कोशिश कि हमारी इच्छा के विरुद्ध जाकर आप इस दुनिया में बने नहीं रह सकते। परन्तु इस मामले में भी एक महिला ने साफ़ झलक दिखा दी है कि भय की नीति को अब दायरे में रहना होगा अन्यथा अब आधी आबादी किसी भी भय के मुँह में लगाम डालने  से नहीं झिझकेगी।
यह तस्वीर और ये मानसिकता अचानक प्रकट नहीं हुई है बल्कि लगातार दमन और अन्याय की पीड़ा सहने के बाद इसका जन्म हुआ है। मंशा स्पष्ट है कि सहना दर्द और कलंक ही है तो क्यों न इसे अपने लिए लड़ते हुए सहा जाय बजाय इसके कि घुटते और घिसटते हुए। यदि मेरे कान ठीक हैं तो 2020 के दशक में भय की व्यवस्था चरमराने और न्याय के लिए दर्द सहते हुए संघर्ष के मुखर होने के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। अच्छा होगा कि विध्वंस के आर्तनाद का इंतज़ार करने की अपेक्षा न्याय को सम्मान हो और अन्यायपूर्ण मंशाओं को पुष्पित पल्लवित होने से रोका जाए अन्यथा बचाने को न भूमि होगी न पालने को उर्वरता।

Friday, March 18, 2011

होली का ये मौसम

"हर हंसी में दर्द छिपा है, हर ख़ुशी के पीछे गम हैं
मत सोच हुआ क्यूँ ऐसा, मत सोच के आँखें नम हैं,
शरमा जाएँ आंसू भी, मुस्कान जो तेरी देखे,
गम को भी दिखला दे तू, खुशियों में कितना दम है!
हाथों में रंग उठा ले, और फिजां गुलाबी कर दे,
आ मिल के शोर मचाएं, "होली का ये मौसम है!"

Friday, October 15, 2010

जयचंदों को जवाब

कटते आये हैं सदियों से एक बार और कट जायेंगे,
इस गौरवशाली माटी को अपने खूँ से नहलायेंगे,
हत्यारे बधिकों से कहना मेरे भाई का सर लाना,
फिर कायर सम भर हुंकारी “मैं भी हिन्दू हूँ” चिल्लाना;
ना लाज कभी आई तुमको न अब भी आने वाली है,
बस जान की धमकी देने की ये अदा खूब ही पाली है !
क्या श्वानो के गुर्राने से कभी नाहर भला सहमता है ?
या मेंढक के टर्राने से मेघों का हृदय लरजता है ?
कहते हो खुद को हिन्दू हैं और गीता का कुछ ज्ञान नहीं!
आक्रांता के भय से आक्रांत अपने ही बंधु का भान नहीं!
ये क्षद्म दिव्य दृष्टि त्यागो और सरल सत्य का ध्यान करो,
भाई के रक्त पिपासू बन मत माता का अपमान करो !
वो शौर्य था भारत माता का जो गुम्बद पर चढ़ कर बोला,
वो धन्य पिता जिनके पुत्रों ने बाबर का अहंकार तोला |
जो नहीं मिलाते मिटटी में नापाक इमारत बाबर की,
तो आज भी होती सिसक रही हर एक गवाही मंदिर की |
जो रक्त हो गया हो काला जो रगों में बहता हो पानी,
तो फौज बुलाओ तुर्कों की और करो खूब फिर अगवानी |
बस ये ही करते आये हो तुम फिर से एक इतिहास लिखो,
फेहरिश्त में मकतूलों के फिर तुम अमानवीय संत्रास लिखो|
क्यों नाहक धमकी देते हो, नेजों पर अपने सान धरो,
मुंह से बस जपते रहो राम और बगल छुरी श्रीमान धरो!
कर लो सारे उद्दयोग अभी कही कसर न कोई रह जाए,
भाई न बचने पाए कदाचित देश ढहे तो ढह जाए |
मिलकर भ्रात्र-हंताओं से कुछ और जख्म तुम दे देना,
जिस धरा ने पाला है तुमको विष बीज उसी में बो देना |
विष-वृक्ष उगे तो ‘अपना है’ कह कर संरक्षण दे देना,
‘काटों का पौधा है गुलाब’ मनवा कर तर्पण दे देना |
गर गैरत थोड़ी है बाकी तो अपनों पर मरके देखो,
हिम्मत है तो अरि के समक्ष एक सिंहनाद करके देखो|
न लखन बन सको खेद नहीं पर यार विभीषण मत बनना,
भाई के शव पर कभी शत्रु के हाथ ताज भी न गहना |
भाई के शव पर कभी शत्रु के हाथ ताज भी न गहना |

मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

जब तेरा कोई रूप नहीं, मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ  ?
न आये निकट, न प्रकट दिखे, न सुख-दुःख का अनुमान करे,
जब भूख से रोते हैं बच्चे, वो उनका भी न मान धरे,
जिसकी छाया के तले साँप खा जाये अजन्मे अण्डों को,
ऐसी निर्मम सत्ता को फिर अपना कैसे, क्यूँकर जानूँ ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?
तुझको पूजा, तुझको माना, तन काट तेरा श्रृंगार किया,
हमने भूखे रह कर निशि-दिन तेरी ज्वाला को होम दिया,
जब तेरा दीप जलाकर भी हम भटके हैं अंधियारों में,
ऐसी सुर सुरा-मदांध शक्ति को अपना हितकर क्यूँ मानूँ ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानू ?
न कभी बनाई कुटी कोई, न शिशु को छाती लिपटाया,
सब शक्ति लगायी ध्वंस किया, संघारक शंकर कहलाया,
जब आर्तनाद को सुन्दर भी उस शिव का ध्यान नहीं खुलता,
ऐसी निज सत्ता रक्षक को, अपना संरक्षक क्यूँ जानूँ  ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?
ठोकर खा के हम गिरे धरा, तूने तो बाँह नहीं थामी,
जब छोड़ दिया खुद उठने को, तब भी तू था अंतर्यामी,
अब तेरा सहारा लिए बिना हम चल लेंगे, तू रहने दे !
काँटों को फूल बनाने की मन्नत भी तुझसे क्यूँ माँगू  ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

उस शिव से मेरी लड़ाई है !

निज शीश झुकता हूँ दर पे, क्योंकि मैं डरता हूँ उससे,
फिर भी विद्रोह भाव मन में, शिव का मैं न अनुरागी हूँ |
मैं मूक कलम से कहता हूँ, कि आम न होवे रुसवाई,
वो सह न सकेगा व्यंग मेरा, मैं उसके कोप का भागी हूँ |
सब समझे उसको शक्तिमान, लेकिन वह शक्ति से डरता है |
छुप-छुप कर देखो कितने ही नवजातों का वध करता है |
देखो ये संत विरागी बन, करते हैं शिव का नित वंदन |
शिव महाकाल का रूप धरे, उनको भरमाया करता है |
उसका जो न गुणगान करे, वो दंड भयंकर देता है |
जब उसकी ‘कृष्ण’ नहीं माने, वो विष मस्तक भर देता है |
वो नहीं सामने आता है, छुप-छुप कर रार लगाई है |
मैं हार न उससे मानूंगा, उस शिव से मेरी लड़ाई है |
शिव सर्पदंश, त्रिशूल दिखाकर मुझे डरा जब न पाया |
तो उसने माया अस्त्र चलाकर, मन में मंथन करवाया |
घनघोर अँधेरा दस-दिशि कर, ममानी चोट लगाई है |
पर हार न उससे मानूँगा, उस शिव से मेरी लड़ाई है |
उसके सारे अधिकारों को अब ‘कृष्ण’ चुनौती देता है |
लघुता को अपनी भुला आज कुछ प्रश्न प्रकट रख देता है-
जब शिव रखवाला दुनिया का तो हम सब सहमे-सहमे क्यों ?
जब पालनहारा ईश स्वयं तो बच्चे भूखे सोते क्यों ?
यदि सृष्टि को रचना और मिटाना ही उसकी प्रभुताई है |
मुझको उसकी तनती भृकुटी कि करनी अब अगुवाई है |
पर हार न मानूँगा उससे, उस शिव से मेरी लड़ाई है |

The Game

12:00 O’clock (Midnight)- An innocent man bitterly killed by his beloved and her friend.
The man was first caught in a trap when he felt that he might not live without his beloved. He, as was instructed by the beloved, said sorry to her friend. Both called him and he went there helpless, guardless. First the beloved tore his bosom and pricked his heart with a sharp knife. The man began to cry but his heart rending sobs and cries proved to be futile. She went on scratching his heart as if she were avenging herself on account of some sin committed by the man, yet the man sobbed, ‘I love you! Believe me, I love you! Don’t do it with me! If you want to kill me, fulfill your desire. I’ll not stop you. But  don’t do it with the help of a dog (her friend). If you want to hack my limbs, do it at your pleasure. I welcome thee, come and tear me into pieces and I’ll be very glad that you have fulfilled your wish but don’t do it with the help of a dog (her friend).’ While the man was crying she seemed to have no effect of his sobbing and lamenting and crying. She and her friend started smashing his skull. The man began to faint but the pain did not let him go unconscious. It seemed as if God Himself was glad to see him palpitating. But mere this was not all, the man’s brain came out of the skull and the beloved and her friend started crushing his brain with sharp stones. They went on crushing his heart and skull till three O’clock in the morning yet the man neither fainted not died. He only palpitated and cried. After 7 hours at 9:00 a.m. the beloved came back and asked him what he was doing. He asked only this much- ‘Why did you do all this to me ?’ She smiled and said, ‘You will never understand me. You only say that you love me but you never understood how much do I love you that is why I have to do all this.”
Was it Love?…………….